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:thought_balloon: 27 May 2022 काट रहे दिन

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काट रहे दिन

पतझड़ के पत्ते गिरते जैसे,
काट रहे है दिन ऐसे

मन ऐसी व्यस्तता में व्यस्त है,
हर पल छूट रही हो रेल जैसे।

पल भर कोई ठहरना नही चाहता,
जाने क्यों अब कोई स्टेशन पर बेंच लगाता।

ना भाव की कद्र न आत्मीयता की दरकार,
दिखावो के तानेबाने में उलझा संसार।

नीरा चटोरा अब ये मन हो चला है,
अपने पराए के सुख-दुख बाटने का काम छोड़ चला है।

इस आपाधापी में बहुत टूटे अरमाँ,
जिधर भी देखूँ अधूरे सपनों के निशाँ।

इच्छा है के मन में सुकून भर लूँ,
पर इच्छाशक्ति नही के ऐसा मैं कर लूँ।

राग, द्वेष, लालच प्रबल है,
और इनके आगे हो रहे सारे प्रयास विफल है।

लगता है अंत में ही अंत मिलेगा,
कामांतक मन, कस्तूरी था कस्तूरी ही रहेगा।


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